आत्मा, सास्वत, नित्य और परम सत्य है : अवधेश झा

अध्यात्म : शास्त्रों में जो ब्रह्म लोक का महत्व बताया गया है इसका तात्पर्य है उत्तम कर्म से और उत्तमकर्म से उत्तमलोक की प्राप्ति होती है, अर्थात उस लोक से ऊपर कोई लोक नहीं है और जहां समस्त लोकों का प्रारब्ध है| अर्थात इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि ब्रह्मा जो स्वयं सम्पूर्ण जगत के व्यष्टी रूप का समष्टि रूप है, अर्थात जीव शरीर का निर्माता है| वही से शरीर की प्राप्ति होती है और जहां से शरीर प्राप्त हुआ है, यह आत्मा वही शरीर को समर्पित कर मुक्त हो जाता है, अर्थात उसे “लोक प्रवेश” द्वार भी कह सकते हैं| जैसा कि दर्शन शास्त्र कहता है; “ब्रह्म लोक, नहीं अवस्था” है और ब्रह्म अवस्था ही स्वयं की अवस्था है| क्योंकि आत्मा ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही ब्रह्म को जान सकता है, तो ब्रह्म अवस्था वालों को ही ब्रह्मलोक का ज्ञान है, शास्त्र यह भी कहता है कि “ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं है”| इससे स्पष्ट है कि एक आत्मा जो अपने ही स्वरूप स्थिति में है, उसे अपने स्वरूप अर्थात ब्रह्म के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखता और उसके लिए ब्रह्मलोक समय और स्थान से परे है; अर्थात वह स्वयं ब्रह्मलोक में स्थित है| दूसरा जिस आत्मा का चित संसार में रमा है उसे संसार के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखता| आशय, एक ही समय में कई विचारों का प्रवाह प्रसारित होता रहता है; वास्तव में आत्मा जिस वृति या अवस्था में रहता है उसे वैसा ही संसार की अनुभूति होता रहता है। और जिस आत्मा की समस्त वृतियों का निरोध हो चुका है, या मुक्त ही है, वह ब्रह्म अवस्था में है तो उसका अवस्था ही ब्रह्मलोक है, परंतु, ब्रह्म अर्थात आत्मा में कोई संसार नहीं होता| आत्मा में आत्मा का ही निवास होता है, उसी तरह से प्रत्येक लोक में आत्मा का स्वरूप तो एक ही रहता है भले उसका उपाधि शरीर भिन्न भिन्न हो| जल में रहने वाला जीव का जल ही संसार है, उसी तरह से जंगल में रहने वाला जीव का जंगल ही संसार है और मनुष्य अपने बुद्धि के प्रसार से सभी तरह के वातावरण में रहने का अभ्यास करता है, और अपने मनोकुल संसार का निर्माण करता रहता है| लेकिन यह संसार आत्मा की एक व्यष्ठि मनोरूप है, जो क्षण-क्षण बदलता रहता है, जबकि आत्मा, सास्वत, नित्य और परम सत्य है|दर्शनशास्त्र के ज्ञाता जस्टिस राजेंद्र प्रसाद (पूर्व न्यायधीश पटना उच्च न्यायालय, पटना) का कहना है कि “यह धारणा मन से हटा दीजिए की आप आप किसी और लोक में हैं, ब्रह्म का विचार से ही ब्रह्म लोक की स्थिति का निर्माण होना प्रारंभ हो जाता है तथा आपका समस्त कर्म उसी अनुरूप होता जायेगा और आप स्वयं ब्रह्मलोक में अवस्थित हो जायेंगे, इसलिए, ब्रह्म विचार अत्यधिक महत्वपूर्ण है| ब्रह्म, ब्रह्म विचारों से प्राप्त करना संभव है| जागृत अवस्था का ब्रह्म विचार, स्वप्न अवस्था के विचार को प्रभावित करता है, और स्वप्न, सुसुप्ति को और सुसुप्ति, कारण जगत को त्यागकर तुरित स्थिति जोकि ब्रह्म स्थिति है, उसी में स्थित हो जाता है| समस्त विचार का विकल्प उपलब्ध है, परंतु ब्रह्म विचार का कोई विकल्प नहीं है, इसलिए यह विचार स्थित, सत्य और अनंत है|”ध्यातव्य है कि, पाताल लोक से समस्त लोक, परलोक, देव लोक आदि अनंत लोक से लेकर, ब्रह्मलोक तक की यात्रा शरीर की नहीं, आत्मा की है,तथा यह आत्मा की अवस्था है| आत्मा अपने स्वरूप स्थिति में होता है तो उसका ब्रह्म लोक तक में प्रवेश होता है,अर्थात वह स्वयं के ब्रह्मलोक में है और वही आत्मा अपने स्वरूप स्थिति से दूषित बुद्धि के कारण जितना नीचे गिरते जाता है, तो वह अपने लिए पाताल लोक की स्थिति का निर्माण कर लेता है|जहां अज्ञानता की संसार ही उसे कभी अच्छा तो कभी बुरा लगता रहता है लेकिन, ऐसी परिस्थिति में भी अगर वही आत्मा अपने स्वरूप का चिंतन करे तो उसे वही से मोक्ष का मार्ग प्रशस्त हो जाता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है, यह भी विचार से ही संभव है|संसार में किए गए समस्त जप – तप, दान – पुण्य; मनोमय संसार को ही उत्तम बनाने के लिए है| इसलिए, आदि काल से ही इस संसार को उत्तम करने के लिए उत्तम शिक्षा, दीक्षा, राज्य व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, धर्म व्यवस्था, नीति और न्याय व्यवस्था आदि निर्माण किया गया था, क्योंकि उत्तम विचार या ब्रह्म विचार के लिए, आत्मा के समीप ब्रह्म विचारों का वातावरण भी आवश्यक है| इसलिए यह समस्त निर्माण आत्मा ने स्वयं अपने लिए ही किया है|जैसे बाहर का संसार है, उसका सूक्ष्म संसार भीतर भी है, अंतः कारण की यात्रा जो आत्मा तक जाती है, “स्वयं की यात्रा” है,वहां आपके अतिरिक्त कोई नहीं है क्योंकि वहां स्वयं का ही स्वरूप है|”गीता की अठारह अध्याय” एक यात्रा ही तो है यह, वह ब्रह्म वैचारिक यात्रा है, जो एक शोक ग्रस्त आत्मा को मुक्त कराकर अपने स्वरूप का बोध करा दिया| वह अर्जुन का अंतिम युद्ध था! जो प्रत्येक शोक ग्रस्त आत्मा का होता है, वही एक राजर्ष अवस्था है, जहां से आगे बढ़ना मुश्किल होता है| वही एक अवस्था है, जहां ईश्वर अर्थात आत्मा स्वयं, आत्मा को वरन करती है, जो श्रीकृष्ण किए|लेकिन, उसके लिए पात्रता भी आवश्यक था! अर्जुन का अंतः करण शुद्ध था और वो जितेंद्रिय था| उसे निंद्रा पर नियंत्रण थी और इंद्रलोक तक पहुंच था। वास्तव में जिसने अपने इन्द्रियों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया, वही इंद्र है। तथा जो अपने मन को, अहंकार में, अंहकार को चित में और चित को बुद्धि में स्थापित कर दिया हो तथा बुद्धि को आत्मा अर्थात ईश्वर को समर्पित कर दिया हो वही स्वरूप प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है| क्योंकि वही प्रज्ञा बुद्धि के द्वार पर अवस्थित आत्मा वरन के लिए तत्पर रहता है जैसा कि “श्रीकृष्ण स्वरूप आत्मा” ने अर्जुन के लिए किया| यहां यह भी ध्यातव है कि अर्जुन संसार की जितने भी वस्तु, रत्न, विद्या ग्रहण किया वह अपने पुरुषार्थ पूर्ण प्रयास से किया था, लेकिन, शोक की मुक्ति उसे “श्रीकृष्ण के ब्रह्म विचारों” से ही प्राप्त हुआ था| इसलिए, संसार में भी जो शोक से मुक्त है वह स्वरूप को प्राप्त कर सकता है|अब, यह और स्पष्ट है कि “ब्रह्म अवस्था” है, यह आत्मा की ही अवस्था है| उदाहरण स्वरूप जाना जा सकता है कि समस्त ब्रह्म ज्ञानी को समस्त लोकों में प्रवेश था, उसके लिए उनका शरीर कोई बाधा नहीं था| क्योंकि वह “शरीर की संसार” की अवस्था को पार कर चुके थे और आत्म अवस्था को प्राप्त थे, जब तक संसार में अच्छा – बुरा का विचार चलता रहेगा,संसार ही संसार, बार-बार प्रकट होता रहेगा| लेकिन, जैसे जैसे ब्रह्म विचारों का समावेश होगा,संसार की मात्रा कम होता जायेगा, फिर संसार का अस्त होकर, आत्मा का उदय होता है, फिर, ब्रह्म के सूर्योदय का कभी अस्त नहीं होता है|

0Shares